chhat aur parjivi
सूत्रधार :

निरंतर चलते रहने वाला संसार थम गया हैघरों में क़ैद कुंठाग्रस्त मनुष्य हर शाम अपनी अपनी छत पर इकट्ठे होते हैं। कितना अद्भुत दृश्य , वाह !

सब अलग अलग घरों पर होते हुए भी लगता है मानो एक साथ है, लगता है जैसे सारी छतें आपस में मिलकर अठखेलियाँ करती हो ।

हर छत एक नई कहानी बुनती है , हर छत एक नया रंगमंच है, नित नई कहानी नित नए कठपुतली के खेल। उस दिन कैसा विहंगम दृश्य था , थालियों और तालियों की गड़गड़ाहट , वह कोलाहल , आसमान में बौराए से फिरते पंछी और आज यह क्या . . .     आज तो लगता है मानो मानो दीवाली है . . . 
दृश्य एक

 

दो परजीवी एक टूटी हुई सीढ़ी से छत पर प्रवेश करते हैं , छत के एकांत में खलल पड़ता है

परजीवी 1: देखो देखो     चेक करो आज का क्या नंबर आया

परजीवी 2: अपना फोन निकालकर उसपर टाइप करता है, फ़ोन की रौशनी से परजीवी के चेहरे की लकीरें उभर आयी है

परजीवी 2: हाँ US तो भई गया काम से 1000 से भी ज्यादा इटली 800 स्पेन 700, हिंदुस्तान का न जाने क्या होगा

परजीवी 1: हाहा     हिंदुस्तान का कुछ नही हो सकता . . . हम्म

परजीवी 2: अरे उसकी फोटो लो, लोगो के पास इतने फटाके आए कहाँ से? पर जो भी है क्या ही सुन्दर लग रहा है .    

परजीवी 1: वो वहाँ …  वो क्या उड़ रहा है . . .?

 

कुछ देर अनर्गल  प्रलाप करने के बाद परजीवी अपने अपने बिलों में लौट जाते हैं

छत :

उफ्फ्फ जान  छूटी , मुझे तो इन दुष्टों की गंध से ही नफरत है, इनके गंदे पैरों से मेरे बदन में ईच होती है, दिनभर कुछ नहीं करते बस बैठे बैठे डींगे हांकते रहते हैं , जब तक ये यहाँ बैठे रहते जी भरी सा रहता है चलो आज तो जान छूटी, वैसे मैं आप सबको बता दूँ मैं इस मोहल्ले की सबसे ऊँची छत हूँ पर कभी भी इस बात का घमंड नहीं किया। पता है, वो गली नो. 5 वाली छत मेरी सबसे अच्छी दोस्त है, उसके सर सजी तीन हरी टंकियां कितनी सुन्दर जान पड़ती है ना, मेरी त्वचा खुरदुरी ज़रूर है पर मुझे खुद पर नाज़ है, वो पेड़ के पास वाली छत, वही जिसपर चमकीले टाइल्स लगी है कितना ज्यादा इतराती है, वह मुझे इतना सा भी नहीं भाती।

हे भगवन इस घर के लोग बिलकुल निकम्मे है कभी मोटर बंद नहीं करते, लो मैं फिर से भीग गई खैर क्या बताऊँ हम छतों की तो किस्मत में ही लिखा धूप सर्दी सब में आगे रहकर सहना , अगर  आपके सर पर छत है तो समझिये आप बेहद खुशकिस्मत हैं. . .

पता है, मुझे वो
पतंग उड़ाते बच्चो के पैरों की थपथपाहट से मुझे बड़ी गुदगुदी होती है, पर कितना सुकून भी तो मिलता है, कल मैं सारी रात चाँद को निहारती रही, कितना बड़ा कितना चमकीला और सुन्दर लग रहा था , मुझे चाँद के अंदर एक खरगोश भी दिखाई दिया. . .

 छत : लो ये मनहूस फिर आ

गए, भला मेरी किस्मत में पल दो पल खुद के लिए मंज़ूर कहाँ . . .

धीरे धीरे क़दमों की
आहट तेज़ होती है… छत एकटक आँखे गड़ाये आसमान को देखने लगती है और पर्दा गिर जाता
है।